Friday, May 30, 2014

भगवान के अवतारों का वर्णन ( Bhgwan ke avtaro ka varnan )

श्रीमद्भागवत  प्रथम स्कंध  तीसरा अध्याय

जब  सृष्टि के आरंभ में भगवान को लोकों के निर्माण की इच्छा हुई, तो उन्होने निष्पन्न पुरुष रूप धारण किया| उसमें दस इंद्रियाँ, एक मन, पाँच भूत- ये सोलह कलाएँ थी| उन्होने जल में शयन करते हुए जब योगनिद्रा का विस्तार किया तब उनके नाभि सरोवर में से एक कमल प्रकट हुआ और उस कमल से प्रजापतियों के अधिपति ब्रंहाज़ी उत्पन्न हुए|

1) प्रभु ने पहले कौमारसर्ग में सनक, सनन्दन, सनातन और सनत्कुमार- इन चार ब्रम्हणों के रूप में अवतार ग्रहण करके अत्यंत कठिन अखंड ब्रम्हचर्य का पालन किया|


2) दूसरी बार रसातल में गयी हुई पृथ्वी को निकाल लाने के विचार से सूकर रूप ग्रहण किया|


3) ऋषियों की सृष्टि में देवर्षी नारद के रूप में तीसरा अवतार लिया और "नारद पाँचरात्र" का उपदेश दिया| इसमें कर्मों के द्वारा कर्म बंधन से केसे मुक्ति मिलती है, इसका वर्णन है|


4) धर्मपत्नी मूर्ति के गर्भ से उन्होने नर-नारायण के रूप में चौथा अवतार लिया|


5) पाँचवे अवतार में वे सिद्धों के स्वामी  कपिल के रूप में प्रकट हुए|


6) अनुसूइया के वार माँगने पर छटे अवतार में अत्रि की संतान दत्तात्रेय हुए| इस अवतार में उन्होने अलर्क एवं प्रल्हाद आदि को ब्रम्‍हज्ञान दिया|


7) सातवीं बार रूचि प्रजापति की आभूति नमक पत्नी से यग्य रूप में अवतार लिया और अपने पुत्र याम आदि देवताओं के साथ स्वायंभुव मन्वन्तर की रक्षा की|


8) राजा नाभि की पत्नी मेरु देवी के गर्भ से ऋषभ देव के रूप में आठवाँ अवतार लिया|


9) ऋषियों की प्रार्थना से नवीं बार राजा प्रिथू के रूप में आवर्तीण हुए| इस अवतार में उन्होने पृथ्वी से समस्त औषधियों का दोहन किया था, इससे यह अवतार बड़ा ही कल्याणकारी हुआ|


10) चाक्षुक मन्वन्तर के अंत में जब पृथ्वी समुद्र में डूब रही थी तब उन्होनें मत्स्य रूप में दसवाँ अवतार ग्रहण किया और पृथ्वी रूपी नौका पर बैठकर अगले मन्वन्तर के अधिपति वैवस्वत मनु की रक्षा की|


11) जिस समय देवता और दैत्य समुद्र मंथन कर रहे थे, उस समय ग्यारहवा अवतार धारण करके कच्छपरूप से भगवान ने मन्दराचल को अपनी पीठ पर धारण किया|


12) बारहवीं बार धन्वंतरि के रूप में अमृत लेकर समुद्र से प्रकट हुए|


13) तेरहवीं बार मोहिनी रूप धारण करके दैत्यों को मोहित करते हुए देवताओं को अमृत पिलाया|


14) चौदहवें अवतार में उन्होनें नरसिंह रूप धारण किया और अत्यंत बलवान दैत्यराज हिरण्यकशिपु की छाति अपने नखों से इस प्रकार फाड़ डाली जैसे चटाई बनाने वाला सींक को चीर डालता है|


15) पंद्रहवीं बार वामन का रूप धारण करके भगवान दैत्यराज बलि के यग्य में गये|


16) सोलहवें परशुराम अवतार में जब उन्होनें देखा की राजा लोग ब्रम्हणों के द्रोही हो गये हैं तब क्रोधित होकर उन्होनें पृथ्वी को इक्कीस बार क्षत्रियों से शून्य कर दिया|


17) सत्रहवें अवतार में सत्यवती के गर्भ से पराशरजी के द्वारा व्यास रूप में अवतीर्ण हुए|


18) अठारहवीं बार देवताओं का कार्य संपन्न करने की इच्छा से उन्होने राजा के रूप में रामअवतार लिया|


19,20) उन्नीसवें और बीसवें अवतार में उन्होनें यदुवंश में बलराम और श्रीकृष्ण के रूप में प्रकट होकर पृथ्वी का भर उतारा|


21) उसके बाद कलियुग आ जाने पर मगध देश (बिहार) में देवताओं के द्वेषी दैत्यों को मोहित करने के लिए अजन के पुत्र रूप में भगवान का बुद्धावतार होगा|


22) उसके बाद कलियुग के अंत में जगत के रक्षक भगवान विष्णुयश नामक ब्राम्‍हण के घर कल्कि रूप में अवतीर्ण होंगे| 



Note: Directly taken from Srimad Bhagwat


Wednesday, May 28, 2014

Story of dhundhukari / धूंधुकारी को प्रेत योनि की प्राप्ति और उससे उद्धार( dhundhukari ko pret yoni ki prapti aur usse uddhar)

श्रीमद् भागवत - पाँचवा अध्याय
आत्मदेव ब्राम्‍ह संतान होने से दुखी था| वन में महात्मा ने उसे एक फल देकर कहा की इसे अपनी स्त्री को खिला दे| उसकी पत्नी धूंधुलि ने फल गाय को खिला दिया| धूंधुलि ने अपनी बहिन के साथ मिलकर नाटक रचा| उसकी बहिन उस समय गर्भवती थी| धूंधुलि खुद गर्भवती होने का नाटक करती रही| समय आने पर उसने अपनी बहिन का बच्चा ले लिया और लोगो को कह दिया की उसकी बहिन को मरा हुआ बच्चा हुआ है| इस काम के लिए बहिन के पति को बहुत सा धन भी दिया| इस तरह धूंधुलि ने अपने बच्चे का नाम धूंधुकारी रखा| कुछ समय बाद गाय को भी मनुष्यकार बच्चा हुआ| उसके गाय के जेसे कान होने से आत्मदेव ने उसका नाम गौकर्ण रखा| धूंधुकारी बहुत ही दुष्ट तथा हिंसक प्रवृति का था| इसके विपरीत गौकर्ण ज्ञानी और दानी था| धूंधुकारी से तंग आकर आत्मदेव वन को चले गये|  
पिता के वन चले जाने पर एक दिन धूंधुकारी ने अपनी माता को बहुत पीटा और कहा- बता! धन कहाँ रखा है? नहीं तो जलती लकड़ी से तेरी खबर लूँगा| उसकी इस धमकी से डर कर तथा दुखी होकर धूंधुलि ने कुएँ में गिर कर प्राण त्याग दिए| धूंधुकारी पाँच वैश्याओं के साथ घर में रहने लगा|  
वह जहाँ तहाँ से बहुत सा धन चुरा के लाता| चोरी का माल देख कर एक दिन वैश्याओं ने सोचा-"यह नित्य ही चोरी करता है| इसे अवश्य ही राजा पकड़ लेगा और कड़ा दंड देगा| इसे मारकर, सारा माल लेकर हम कहीं चली जाएँगी| " ऐसा निश्चय करके उन्होने सोए हुए धूंधुकारी को रस्सी से कस दिया और गले में फाँसी लगाकर मारने का प्रयत्न किया| इससे भी वह नही मारा तो उस के मुख पर जलते हुए अंगारे डाले| इससे वह तड़प तड़प कर मर गया| उन्होने उसके शरीर को एक गड्ढे में डाल कर गाढ दिया|  
धूंधुकारी अपने कर्मों के कारण भयंकर प्रेत हुआ| वह सर्वदा दसों दिशाओं में भटकता रहता था| और भूख प्यास से व्याकुल होने के कारण "हा देव!! हा देव!!" चिल्लाता रहता था परंतु उसे कोई आश्रय नही मिलता| 
जब गौकर्ण को अपने भाई की मृत्यु का समाचार मिला तो उन्होने उसका गयाजी में श्राद्ध किया| वह जहाँ भी जाते, धूंधुकारी के नाम से दान करते| घूमते घूमते वह अपने नगर पहुँचे| रात्रि के समय अपने घर के आँगन मे सो गये| अपने भाई गौकर्ण को सोया देख धूंधुकारी ने अपना विकट रूप दिखाया| वह कभी भेड़ा, हाथी, भेंसा तो कभी इंद्र, अग्नि का रूप धारण करता| अंत में वह मनुष्यकार में प्रकट हुआ| ये विपरीत अवस्थाएं देख कर गौकर्ण ने निश्चय कर लिया था की यह अवश्य ही दुर्गति को प्राप्त हुआ है|  
तब उन्होनें धैर्य पूर्वक पूछा-"तू कौन है? रात्रि के समय एसा भयानक रूप क्यूँ दिखा रहा है? तेरी यहा दशा कैसे हुई?" गौकर्ण के इस प्रकार पूछने पर प्रेत ज़ोर ज़ोर से रोने लगा| उसने कहा- मैं तुम्हारा भाई धूंधुकारी हूँ| मैं महान अज्ञान में चक्कर काट रहा था| मैने लोगों की बड़ी हिंसा की| इसी से मैं प्रेत योनि में पड़कर दुर्दशा भोग रहा हूँ| भाई! तुम दया के सागर हो| कैसे भी करके मुझे इस प्रेत योनि से मुक्ति दिलाओ|  
गौकर्ण ने कहा- मैने तुम्हारे लिए विधि पूर्वक गयाजी में पिंड दान किया| फिर भी तुम्हे मुक्ति नहीं मिली| मुझे क्या करना चाहिए? प्रेत बोला- मेरी मुक्ति सैंकड़ों गयाश्राद्ध से भी नहीं हो सकती| गौकर्ण ने कहा- तब तो तुम्हारी मुक्ति असंभव है| तुम अभी निर्भय होकर अपने स्थान पर रहो| मैं विचार करके तुम्हारी मुक्ति के लिए उपाय करूँगा|  
गौकर्ण की आग्या पाकर धूंधुकारी वहाँ से चला गया| सुबह होने पर गौकर्ण ने लोगों को सारी बात बताई| उनमें से जो विद्वान थे, उन्होने कहा की इस विष में जो सूर्यनारायण कहें वही करना चाहिए| अतः गौकर्ण ने अपने तपोबल से सूर्य की गति को रोक दिया| उन्होने स्तुति की-भगवान! आप सारे संसार के साक्षी हैं| कृपा करके मुझे धूंधुकारी की मुक्ति का उपाय बताएँ| तब सूर्यनारायण ने कहा- श्रीमद् भागवत से मुक्ति हो सकती है| उसका सप्ताहपरायण करो|  
गौकर्ण जी निश्चय करके कथा सुनाने को तैयार हो गये| जब गौकर्ण जी कथा सुनाने को व्यासगद्दी पर बैठकर कथा कहने लगे, तब प्रेत भी वहाँ गया इधर उधर बैठने का स्थान ढूढ़ने लगा| तब वह सात गाँठ के एक बाँस के छेद में घुसकर बैठ गया|  
सायँकाल को जब कथा को विश्राम दिया गया , तभी बाँस की एक गाँठ ड़ ड़ करती हुई फट गयी| दूसरे दिन दूसरी गाँठ| इस प्रकार से सात दिनों में सातों गाँठों को फोड़कर , बारह स्कंधो को सुनकर, धूंधुकारी प्रेत योनि से मुक्त हो गया और दिव्य रूप धारण करके सब के सामने प्रकट हुआ| उसने तुरंत गौकर्ण को प्रणाम करके कहा- भाई! तुमने कृपा करके मुझे प्रेत योनि से मुक्ति दिला दी| यह प्रेत पीड़ा का नाश करने वाली श्रीमद् भागवत कथा धन्य है|  
जिस समय धूंधुकारी यह सब बातें कह रहा था, उसी समय उसके लिए वैकुंठ वासी पार्षदों सहित विमान उतरा| सब लोगों के सामने धूंधुकारी उसमें चढ़ गया| तब गौकर्ण ने कहा- भगवान के प्रिय पार्षदों! यहाँ तो अनेक श्रोतागण हैं| फिर उन सब के लिए आप लोग बहुत से विमान क्यूँ नहीं लाए? यहाँ सभी ने समान रूप से कथा सुनी है| फिर अंत में इस प्रकार का भेद क्यूँ? 
भगवान के सेवकों ने कहा- इस फल भेद का कारण इनका श्रवण भेद ही है| श्रवण तो सभी ने समान रूप से किया, परंतु इसके (प्रेत) के जैसा मनन नहीं किया| इस प्रेत ने सात दिन तक निराहार श्रवण किया था| अतः मुक्ति को प्राप्त हुआ| एसा कहकर हरी कीर्तन करते हुए पार्षद वैकुंठ लोक चले गये|  
श्रावण मास में गौकर्ण जी ने फिर से सप्ताह क्रम में कथा कही और उन श्रोताओं ने फिर से कथा सुनी| इस बार भक्तो के लिए विमान के साथ भगवान प्रकट हुए| भगवान स्वयं हर्षित होकर अपने पाँचजन्य शंख से ध्वनि करने लगे तथा गौकर्ण को हृदय से लगा कर अपने समान बना लिया|  

यह कथा बहुत पवित्र है| एक बार के श्रवण से ही समस्त पाप राशि को नष्ट कर देती है| यदि इसका श्राद्ध के समय पाठ किया जाए, तो इससे पित्रगण को बड़ी तृप्ति मिलती है| और नित्य पाठ करने से मोक्ष की प्राप्ति होती है|  



Note: Directly taken from Srimad Bhagwat