Wednesday, May 28, 2014

Story of dhundhukari / धूंधुकारी को प्रेत योनि की प्राप्ति और उससे उद्धार( dhundhukari ko pret yoni ki prapti aur usse uddhar)

श्रीमद् भागवत - पाँचवा अध्याय
आत्मदेव ब्राम्‍ह संतान होने से दुखी था| वन में महात्मा ने उसे एक फल देकर कहा की इसे अपनी स्त्री को खिला दे| उसकी पत्नी धूंधुलि ने फल गाय को खिला दिया| धूंधुलि ने अपनी बहिन के साथ मिलकर नाटक रचा| उसकी बहिन उस समय गर्भवती थी| धूंधुलि खुद गर्भवती होने का नाटक करती रही| समय आने पर उसने अपनी बहिन का बच्चा ले लिया और लोगो को कह दिया की उसकी बहिन को मरा हुआ बच्चा हुआ है| इस काम के लिए बहिन के पति को बहुत सा धन भी दिया| इस तरह धूंधुलि ने अपने बच्चे का नाम धूंधुकारी रखा| कुछ समय बाद गाय को भी मनुष्यकार बच्चा हुआ| उसके गाय के जेसे कान होने से आत्मदेव ने उसका नाम गौकर्ण रखा| धूंधुकारी बहुत ही दुष्ट तथा हिंसक प्रवृति का था| इसके विपरीत गौकर्ण ज्ञानी और दानी था| धूंधुकारी से तंग आकर आत्मदेव वन को चले गये|  
पिता के वन चले जाने पर एक दिन धूंधुकारी ने अपनी माता को बहुत पीटा और कहा- बता! धन कहाँ रखा है? नहीं तो जलती लकड़ी से तेरी खबर लूँगा| उसकी इस धमकी से डर कर तथा दुखी होकर धूंधुलि ने कुएँ में गिर कर प्राण त्याग दिए| धूंधुकारी पाँच वैश्याओं के साथ घर में रहने लगा|  
वह जहाँ तहाँ से बहुत सा धन चुरा के लाता| चोरी का माल देख कर एक दिन वैश्याओं ने सोचा-"यह नित्य ही चोरी करता है| इसे अवश्य ही राजा पकड़ लेगा और कड़ा दंड देगा| इसे मारकर, सारा माल लेकर हम कहीं चली जाएँगी| " ऐसा निश्चय करके उन्होने सोए हुए धूंधुकारी को रस्सी से कस दिया और गले में फाँसी लगाकर मारने का प्रयत्न किया| इससे भी वह नही मारा तो उस के मुख पर जलते हुए अंगारे डाले| इससे वह तड़प तड़प कर मर गया| उन्होने उसके शरीर को एक गड्ढे में डाल कर गाढ दिया|  
धूंधुकारी अपने कर्मों के कारण भयंकर प्रेत हुआ| वह सर्वदा दसों दिशाओं में भटकता रहता था| और भूख प्यास से व्याकुल होने के कारण "हा देव!! हा देव!!" चिल्लाता रहता था परंतु उसे कोई आश्रय नही मिलता| 
जब गौकर्ण को अपने भाई की मृत्यु का समाचार मिला तो उन्होने उसका गयाजी में श्राद्ध किया| वह जहाँ भी जाते, धूंधुकारी के नाम से दान करते| घूमते घूमते वह अपने नगर पहुँचे| रात्रि के समय अपने घर के आँगन मे सो गये| अपने भाई गौकर्ण को सोया देख धूंधुकारी ने अपना विकट रूप दिखाया| वह कभी भेड़ा, हाथी, भेंसा तो कभी इंद्र, अग्नि का रूप धारण करता| अंत में वह मनुष्यकार में प्रकट हुआ| ये विपरीत अवस्थाएं देख कर गौकर्ण ने निश्चय कर लिया था की यह अवश्य ही दुर्गति को प्राप्त हुआ है|  
तब उन्होनें धैर्य पूर्वक पूछा-"तू कौन है? रात्रि के समय एसा भयानक रूप क्यूँ दिखा रहा है? तेरी यहा दशा कैसे हुई?" गौकर्ण के इस प्रकार पूछने पर प्रेत ज़ोर ज़ोर से रोने लगा| उसने कहा- मैं तुम्हारा भाई धूंधुकारी हूँ| मैं महान अज्ञान में चक्कर काट रहा था| मैने लोगों की बड़ी हिंसा की| इसी से मैं प्रेत योनि में पड़कर दुर्दशा भोग रहा हूँ| भाई! तुम दया के सागर हो| कैसे भी करके मुझे इस प्रेत योनि से मुक्ति दिलाओ|  
गौकर्ण ने कहा- मैने तुम्हारे लिए विधि पूर्वक गयाजी में पिंड दान किया| फिर भी तुम्हे मुक्ति नहीं मिली| मुझे क्या करना चाहिए? प्रेत बोला- मेरी मुक्ति सैंकड़ों गयाश्राद्ध से भी नहीं हो सकती| गौकर्ण ने कहा- तब तो तुम्हारी मुक्ति असंभव है| तुम अभी निर्भय होकर अपने स्थान पर रहो| मैं विचार करके तुम्हारी मुक्ति के लिए उपाय करूँगा|  
गौकर्ण की आग्या पाकर धूंधुकारी वहाँ से चला गया| सुबह होने पर गौकर्ण ने लोगों को सारी बात बताई| उनमें से जो विद्वान थे, उन्होने कहा की इस विष में जो सूर्यनारायण कहें वही करना चाहिए| अतः गौकर्ण ने अपने तपोबल से सूर्य की गति को रोक दिया| उन्होने स्तुति की-भगवान! आप सारे संसार के साक्षी हैं| कृपा करके मुझे धूंधुकारी की मुक्ति का उपाय बताएँ| तब सूर्यनारायण ने कहा- श्रीमद् भागवत से मुक्ति हो सकती है| उसका सप्ताहपरायण करो|  
गौकर्ण जी निश्चय करके कथा सुनाने को तैयार हो गये| जब गौकर्ण जी कथा सुनाने को व्यासगद्दी पर बैठकर कथा कहने लगे, तब प्रेत भी वहाँ गया इधर उधर बैठने का स्थान ढूढ़ने लगा| तब वह सात गाँठ के एक बाँस के छेद में घुसकर बैठ गया|  
सायँकाल को जब कथा को विश्राम दिया गया , तभी बाँस की एक गाँठ ड़ ड़ करती हुई फट गयी| दूसरे दिन दूसरी गाँठ| इस प्रकार से सात दिनों में सातों गाँठों को फोड़कर , बारह स्कंधो को सुनकर, धूंधुकारी प्रेत योनि से मुक्त हो गया और दिव्य रूप धारण करके सब के सामने प्रकट हुआ| उसने तुरंत गौकर्ण को प्रणाम करके कहा- भाई! तुमने कृपा करके मुझे प्रेत योनि से मुक्ति दिला दी| यह प्रेत पीड़ा का नाश करने वाली श्रीमद् भागवत कथा धन्य है|  
जिस समय धूंधुकारी यह सब बातें कह रहा था, उसी समय उसके लिए वैकुंठ वासी पार्षदों सहित विमान उतरा| सब लोगों के सामने धूंधुकारी उसमें चढ़ गया| तब गौकर्ण ने कहा- भगवान के प्रिय पार्षदों! यहाँ तो अनेक श्रोतागण हैं| फिर उन सब के लिए आप लोग बहुत से विमान क्यूँ नहीं लाए? यहाँ सभी ने समान रूप से कथा सुनी है| फिर अंत में इस प्रकार का भेद क्यूँ? 
भगवान के सेवकों ने कहा- इस फल भेद का कारण इनका श्रवण भेद ही है| श्रवण तो सभी ने समान रूप से किया, परंतु इसके (प्रेत) के जैसा मनन नहीं किया| इस प्रेत ने सात दिन तक निराहार श्रवण किया था| अतः मुक्ति को प्राप्त हुआ| एसा कहकर हरी कीर्तन करते हुए पार्षद वैकुंठ लोक चले गये|  
श्रावण मास में गौकर्ण जी ने फिर से सप्ताह क्रम में कथा कही और उन श्रोताओं ने फिर से कथा सुनी| इस बार भक्तो के लिए विमान के साथ भगवान प्रकट हुए| भगवान स्वयं हर्षित होकर अपने पाँचजन्य शंख से ध्वनि करने लगे तथा गौकर्ण को हृदय से लगा कर अपने समान बना लिया|  

यह कथा बहुत पवित्र है| एक बार के श्रवण से ही समस्त पाप राशि को नष्ट कर देती है| यदि इसका श्राद्ध के समय पाठ किया जाए, तो इससे पित्रगण को बड़ी तृप्ति मिलती है| और नित्य पाठ करने से मोक्ष की प्राप्ति होती है|  



Note: Directly taken from Srimad Bhagwat







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