Friday, May 2, 2014

भक्ति का दुख दूर करने के लिए नारद जी का उद्योग ( Bhakti ka dukh dur karne ke liye narad ka udyog )

श्रीमद् भागवत      दूसरा अध्याय
एक बार जब भक्ति ने भगवान श्री कृष्ण से पूछा कि मैं " क्या करू? " तब भगवान ने उसे आग्या दी कि " मेरे भक्तों का पोषण करो| " भक्ति ने भगवान की वह आग्या स्वीकार कर ली| तब श्री कृष्ण ने प्रसन्न हुए और उसकी सेवा के लिए मुक्ति को दासी रूप में दे दिया तथा ज्ञान और वेराग्य को पुत्रों के रूप में|  तब भक्ति, मुक्ति, ज्ञान और वेराग्य के साथ पृथ्वीतल पर आई और सतयुग से द्वापर युग तक बड़े आनंद से रही| कलियुग में उसकी दासी मुक्ति पाखंड रूप रोग से पीड़ित होकर क्षीण होने लगी थी, इसलिए वह भक्ति की आग्या से तुरंत ही वैकुंठ लोक को चली गयी| कलियुग में वह भक्ति के स्मरण से ही आती है और फिर चली जाती है| किंतु ज्ञान और वैराग्य को पुत्र मान कर भक्ति ने अपने पास ही रख छोड़ा| कलियुग में उनकी उपेक्षा होने से वे उत्साह हीन और वृद्ध हो गये हैं| उनको उदासीन देख कर भक्ति बहुत दुखी होती है और श्री नारद जी से अपने दुख का निवारण पूछती है| 

तब नारद जी कहते हैं- तुम चिंता न करो देवी! इस युग में जो जीव तुमसे युक्त होंगे वे पापी होने पर भी भगवान श्री कृष्ण के परम धाम को प्राप्त होंगे| कलियुग मैं केवल भक्ति, केवल भक्ति ही सार है|  (पूर्व काल में अपने भक्त का तिरस्कार करने वाले दुरवासा मुनि को बड़ा कष्ट भोगना पड़ा था| ) इस युग में योग, ज्ञान, वैराग्य आदि की कोई आवश्यकता नही है| एक मात्रा भक्ति ही मुक्ति देने वाली है| 

भक्ति कहती है- नारद जी आप धन्य हैं| मैं सदा आपके हृदय मैं रहूंगी| किंतु शीघ्र आप मेरे पुत्रों को सचेत कर दीजिए| 

भक्ति के ये वचन सुनकर नारद जी चिंतित होते हैं और भगवान श्री कृष्ण को स्मरण कर पूछते हैं की "अब मैं क्या करू? " उसी समय आकाशवाणी होती है- " हे मुने! खेद मत करो| इसके लिए सत्कर्म करो| वह कर्म तुम्हें संत शिरोमणि महानुभव बताएँगे| उस सत्कर्म का अनुष्ठान करते ही ज्ञान और वैराग्य की नींद एवम् वृद्धावस्था चली जाएगी तथा भक्ति का चारों ओर प्रसार होगा| "

 तब ज्ञान और वैराग्य को वहीं छोड़ के नारद मुनि वहाँ से चल पड़े और प्रत्येक तीर्थ में जाकर मार्ग में मिलने वाले मुनीश्वरों से साधन पूछने लगे| घूमते घूमते नारद जी बदरिवन पहुँचे| वहाँ उन्हें सनकादि मुनीश्वर दिखाई दिए|  नारद जी ने सनकादि मुनीश्वर से वह साधन पूछा जिससे ज्ञान और वैराग्य पुनः तरुण हो जाएँ|

नारद जी कहते हैं- हे मुनि! आप देखने में पाँच वर्ष के बालक से जान पड़ते हैं परंतु आप हैं पूर्वजों के भी पूर्वज| पूर्व काल में आपके प्रभाव से ही भगवान विष्णु के द्वारपाल जय और विजय पृथ्वी पर गिर गये थे| बताइए वह कॉनसा साधन है जो आकाशवाणी में  बताया गया था और मुझे किस प्रकार उसका अनिष्ठान करना चाहिए? 

सनकादि मुनि ने कहा- वह श्रीमद् भागवत का पारायण है| उसके शब्द सुनने से ही ज्ञान और वैराग्य को बल मिलेगा| इससे ज्ञान और वैराग्य का दुख मिट जाएगा और भक्ति को आनंद मिलेगा| 

नारद जी कहते है- मैने वेद वेदांत की प्रतिध्वनि करके उनको जगाया किंतु वे दोनो नहीं जागे| फिर श्रीमद् भागवत सुनने से केसे जागेंगे क्यूंकी उस कथा के प्रत्येक पद मैं भी तो वेदों का ही सारांश है| 

सनकादि मुनि कहते हैं- जेसे दूध में घी रहता है परंतु उस समय उसका स्वाद नहीं मिलता, जब वह अलग हो जाता है तो स्वाद देने लगता है| उसी तरह ये भागवत कथा है| इसमें वेदों का नहीं बल्कि उनके सार का वर्णन है| अतः यह कथा अत्यंत सुख देने वाली है| 


Note: Directly taken from Srimad Bhagwat 



No comments:

Post a Comment