Thursday, May 1, 2014

देवर्षि नारद की भक्ति से भेंट ( Devarshi Narad ki Bhakti Se Bhet )

श्रीमद् भागवत         प्रथम अध्याय

एक बार नारद जी पृथ्वी को सर्वोत्तम लोक मानकर यहाँ विचरण करने आए | यहाँ पुष्कर, प्रयाग, हरिद्वार, कुरुक्षेत्र, आदि कई तीर्थों में इधर उधर विचरते रहे, किंतु कहीं भी उनको मन को संतोष देने वाली शांति नहीं मिली | इस समय अधर्म के सहायक कलियुग ने सारी पृथ्वी को पीड़ित कर रखा है | इस समय यहाँ न कोई ज्ञानी है न कोई सत्कर्म करने वाला है | 

इस तरह कलियुग के दोष देखते हुए वह यमुना जी के तट पर पहुँचे, जहाँ श्री कृष्ण  जी की लीलाएँ हो चुकी है | वहाँ उन्होने देखा की एक युवती खिन्न मन से बैठी थी | उसके पास दो वृद्ध पुरुष अचेत अवस्था में पड़े  ज़ोर ज़ोर से सांस ले रहे थे | वह स्त्री कभी उन्हे चेत करने का प्रयास करती और कभी उनके आगे रोने लगती | उस स्त्री के चारो और सेंकड़ो स्त्रिया पंखा झल रहीं थी | 
दूर  से यह सब देख कर नारद जी उनके पास चले गये | उनको देख कर वह स्त्री खड़ी हो गयी और व्याकुल हो कहने लगी-  

युवती ने कहा - अजी महाराज ! क्षण भर ठहर जाइए, मेरी  चिंता को  नष्ट कीजिए | आप के वचनो से मेरे दुख की भी कुछ शांति हो जाएगी | 

नारद जी ने कहा - देवी, तुम कॉन हो? ये दोनो पुरुष तुम्हारे कॉन होते हैं ? तुम हमे. विस्तार से अपने दुख का कारण बताओ | 

युवती ने कहा- मेरा नाम भक्ति है , ये ज्ञान और वेराग्य नामक मेरे पुत्र हैं| समय के फेर से ही ये एसे जर्जर हो गये हैं| ये देवियाँ गंगा आदि नदियाँ है| ये सब मेरी सेवा के लिए आईं हैं| मेरी कथा सुनकर आप मुझे शांति प्रदान करें| समय के साथ कलियुग के प्रभाव से पाखंडियों ने मुझे अंग भंग कर दिया| चीरकाल तक यह अवस्था रहने के कारण पुत्रों के साथ मैं निर्बल हो गयी| अब जब से वृंदावन आईं हू तब से में सुंदर युवती हो गयी हूँ परंतु मेरे दोनो पुत्रा थके मान्दे दुखी हो रहे हैं| अब मैं यह स्थान छोड़कर अन्यत्र जाना चाहती हूँ| ये दोनो बूढ़े हो गये है, इसी दुख से मैं दुखी हू| 

मैं तरुणी और मेरे पुत्र बूढ़े ! एसा क्यू? हम तीनों साथ रहने वाले हैं| फिर ये विपरीतता क्यू? होना तो ये चाहिए कि माता बूढ़ी हो और पुत्र तरुण| इसी से मैं अपनी अवस्था पर शोक करती हूँ| आप इसका कारण बताइए| 

नारद जी ने कहा- यह कलियुग है| इसी से सदाचार, ताप आदि लुप्त हो गये हैं| इस समय जिस पुरुष का धेर्य बना रहे वही ज्ञानी है| वृंदावन के संजोग से तुम तरुणी हो गयीं क्यूंकी ये भक्ति रस से भरा है परंतु   तुम्हारे पुत्र ज्ञान और वेराग्य का यहाँ कोई ग्राहक नही है| अतः ये सोते जान पड़ते हैं| 

भक्ति ने कहा- राजा परीक्षित ने इस पापी कलियुग को क्यू शरण दी? करुणामेय श्री हरी से यह सब केसे देखा जाता है? मेरा  संशय दूर करे|

नारद जी ने कहा- जिस दिन भगवान श्री कृष्ण भूलोक त्याग कर अपने परम धाम को पधारे, उसी दिन से यहाँ साधनों मैं बाँधा डालने वाला कलियुग आ गया| कलियुग दीन के समान राजा की शरण मैं आया| राजा ने सोचा को जो फल तपस्या और योग से नही मिलता, कलियुग मैं वो मात्र हरी नाम कीर्तन से मिल जाएगा| यही सोच कर राजा ने उसे शरण दी| कलियुग के कारण जगह जगह वस्तु सार नॅस्ट हो रहा है| परंतु यह तो इस युग का स्वाभाव ही है, इसमे किसी का कोई दोष नही है| इसी कारण भगवान समीप होते हुए भी यह सब सह रहे है| 


Note: Directly taken from Srimad Bhagwat 








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