Monday, May 5, 2014

भक्ति के कष्ट का निवारण ( Bhakti ke Kasht ki Nivriti )

श्रीमद् भागवत    तीसरा अध्याय
जब भगवान श्रीकृष्ण इस धराधर को छोड़कर अपने  नित्य धाम को पधारने लगे, तब उद्धवजी ने उनसे पूछा:

उद्धवजी कहते हैं- गोविंद! आप तो अपने भक्तों के कार्य करके परम धाम  पधारना  चाहते हैं| अब तो कलियुग आया ही समझो| इसलिए संसार में फिर अनेकों दुष्ट प्रकट हो जाएँगे| तब उनके भार से पृथ्वी दब कर किसकी शरण में जाएगी? इसलिए आप यहाँ से मत जाइए| आपका वियोग होने पर भक्तजन पृथ्वी पर कैसे रह सकेंगे? 

उद्दव जी के यह वचन सुनकर श्रीकृष्ण सोचने लगे कि मुझे भक्तों के लिए क्या व्यवस्था करनी चाहिए? तब भगवान ने अपनी सारी शक्ति भागवत में रख दी और अंतर्ध्यान हो होकर श्रीमदभगवतसमुद्र में प्रवेश कर गये| इसीलिए इस भगवतपुराण के दर्शन , सेवन, श्रवण, पाठ मात्र से मनुष्य के पाप नष्ट हो जाते हैं| 

जब भक्ति कलियुग में अपने पुत्र ज्ञान और वैराग्य की वृद्धावस्था को लेकर चिंतित थी, तब वह श्री नारादजी से अपने दुख का निवारण पूछती है| उसकी बात सुनकर नारदजी ने सनकादि मुनीश्वर से भक्ति के दुख के निवारण का उपाय पूछा|

सनकादि मुनीश्वर कहते हैं- श्रीमद् भागवत कथा वेद और उपनिषदों के सार से बनी है| अतः श्रीमदभगवतकथा की ध्वनि से कलियुग के सारे दोष नष्ट हो जाएँगे तथा ज्ञान और वैराग्य तरुण हो जाएँगे| 

नारद जी कहते हैं- मैं भक्ति, ज्ञान और वैराग्य की स्थापना करने के लिए भागवत शास्त्र की कथा द्वारा उज्ज्वल ज्ञान यग्य करूँगा| यह यग्य मुझे कहाँ करना चाहिए, कृपा करके वह स्थान बताइए| 

सनकादि बोले- नारादजी हरिद्वार के पास आनंद नाम का घाट है| वह घाट बड़ा ही सुरम्य है| वहाँ आप ज्ञान यग्य आरंभ कर दीजिए|

इस प्रकार से सभी जगह इस कथा का हल्ला हो गया| जो जो श्री भागवत कथा के रसिक विष्णु भक्त थे, वह श्रीमद् भगवताम्रित का पान करने के लिए दौड़े दौड़े आने लगे| भृिगु, वसीष्ट, परशुराम आदि मुनिगन अपने पुत्रों तथा शिष्यों समेत प्रेम से आए| गंगा आदि नदियाँ, सरोवर, गंधर्व, दानव आदि भी कथा सुनने आए| 

तब कथा सुनने के लिए दीक्षित होकर श्री कृष्ण परायण सनकादि नारदजी के दिए आसान पर विराजमान हुए| एक ओर ऋषिगन, एक ओर देवता, एक ओर वेद, एक ओर उपनिषद्, एक ओर तीर्थ और एक ओर स्त्रियाँ बैठीं| 

सनकादि ने कहा-श्री भागवत कथा में 18000 श्लोक, 12 स्कंध हैं| यह कथा शुकदेव और राजा परीक्षित का संवाद है| नित्य भागवत  का पाठ करना, भगवान का चिंतन करना, तुलसी को सींचना, गौ की सेवा करना| इन चारों में कोई अंतर नही है| इसे सुनने का कोई नियम नहीं है| इसे तो सर्वदा सुनना ही अच्छा है| किंतु, कलियुग में एसा होना कठिन है| अतः इसके लिए शुकदेवजी ने साप्ताह श्रवण की विधि बताई है| मन के संयम, रोगों की बहुलता और आयु की अल्पता के कारण कलियुग में साप्ताह श्रावण का विधान किया गया है| 

जिस समय सनकादि मुनीश्वर साप्ताह श्रावण की महिमा का बखान कर रहे थे, उसी समय सभा में एक आश्चर्य हुआ| वहाँ तरुणावस्था को प्राप्त हुए अपने दोनों पुत्रों (ज्ञान और वैराग्य) को साथ लिए भक्ति बार बार "श्री कृष्ण !! गोविंद !! हरे !! मुरारे !! हे नाथ !! नारायण !! वासुदेव !! " आदि नामों का उच्चारण करती आकस्मात प्रकट हो गयी| सभी आश्चर्यचकित होकर एक दूसरे से पूछने लगे की यह यहाँ कैसे आई| 

तब सनकादि ने बताया- यह भक्ति देवी अभी अभी कथा के अर्थ से निकली हैं| 

भक्ति ने कहा- मैं कलियुग में नष्टप्राय हो गयी थी| आपने कथाम्रित से सींच कर मुझे फिर से पुष्ट कर दिया| अब आप यह बताइए कि मैं कहाँ रहूँ?

सनकादि ने कहा- तुम भक्तों को भगवान का स्वरूप प्रदान करने वाली हो| अतः तुम धेर्य धारण करके विष्णु भक्तों के हृदय में ही निवास करो| ये कलियुग के दोष भले ही सारे संसार पर अपना प्रभाव डालें, परंतु वहाँ तुम पर इनकी दृष्टि नहीं पड़ेगी| 

इस प्रकार आग्या पाते ही भक्ति भगवद्भक्तों के हृदय में जा विराजी| जिनके हृदय में श्री हरी की भक्ति निवास करती है, वे अत्यंत निर्धन होने पर भी परम धन्य हैं| क्यूंकी इस भक्ति की डोरी से बँध कर स्वयं श्री हरी उनके हृदय में जा बसते हैं|  


Note: Directly taken from Srimad Bhagwat


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