Monday, May 12, 2014

गौकर्णोपाख्यान प्रारंभ ( Story of Goukarn or Gokarn )

श्रीमद् भागवत चौथा अध्याय
पूर्व काल में तुंगभद्रा नदी के तट पर एक अनुपम नगर बसा हुआ था| उस नगर में समस्त वेदों का विशेषग्य आत्मदेव नामक ब्राम्हन रहता था| उसकी पत्नी धूंधुलि कुलीन एवं सुंदर होने पर भी सदा अपनी बात पर अड़ी रहने वाली थी| उनके कोई संतान नहीं थी| जब अवस्था बहुत ढल गयी तब उन्होने संतान के लिए तरह तरह के पुण्यकर्म आरंभ किए| परंतु उन्हें पुत्र या पुत्री का मुख देखने को न मिला| इसलिए अब वह ब्राम्हन चिन्तातुर रहने लगा| एक दिन वह बहुत दुखी होकर वन को निकल पड़ा| दोपहर के समय उसे प्यास लगी इसलिए वह एक तालाब पर आया| थक जाने के कारण वह जल पीकर वहीं किनारे बैठ गया| दो घड़ी बीतने पर वहाँ एक सन्यासी महात्मा आए| ब्राम्हन उनके पास गया, उनको नमस्कार किया और रोने लगा| 

सन्यासी ने पूछा- कहो ब्राम्हन देवता! रोते क्यू हो? तुम्हें एसी क्या भारी चिंता है?
ब्राम्हन ने कहा- महाराज! देवता और ब्राम्हन मेरा दिया हुआ प्रसन्न मन से स्वीकार नही करते| संतान के लिए मैं इतना दुखी हो गया हू कि मुझे सब सूना ही सूना दिखाई देता है| मैं प्राण त्यागने के लिए यहाँ आया हू| मैं जिस गाय को पालता हूँ वो भी सर्वथा बांझ हो जाती है| जो पेड़ लगाता हूँ , उस पर भी फल फूल नहीं लगते| एसा कह कर वह ब्राम्हन महात्मा के चरणों में फूट फूट कर रोने लगा| 
महात्मा योगनिष्ठ थे| उन्होने ब्राम्हन के ललाट की रेखाएँ देख सारा वृतांत जान लिया था| फिर वे बोले- ब्राम्हन देवता! कर्म की गति प्रबल है| विवेक का आश्रय लेकर संसार की वासना छोड़ दो| मैने इस समय तुम्हारा प्रारब्ध देखकर यह निश्चित किया है कि तुम्हारे सात जन्म तक किसी प्रकार से कोई संतान नहीं हो सकती है| 

ब्राम्हन ने कहा- महात्मा जी! विवेक से मेरा क्या होगा? मुझे तो बल पूर्वक पुत्र दीजिए| नहीं तो मैं आपके सामने ही प्राण त्याग दूँगा| 
ब्राम्हन का एसा आग्रह देखकर महात्मा ने कहा- विधाता के लेख को मिटाने का हट करने से राजा चित्रकेतु को बड़ा भारी कष्ट उठाना पड़ा था| फिर भी जब ब्राम्हन ने किसी प्रकार अपना हट नहीं छोड़ा तो महात्मा ने उसे एक फल देकर कहा- इसे अपनी पत्नी को खिला देना| इससे उसको एक पुत्र होगा| तुम्हारी स्त्री को एक साल तक सत्य, दया, दान और एक समय ही भोजन करने के नियम का पालन करना चाहिए| यदि एसा करेगी तो बालक शुद्ध स्वाभाव वाला होगा| यों कह कर योगिराज चले गये और ब्राम्हन अपने घर चला आया| उसने वह फल अपनी स्त्री को दे दिया और स्वयं कहीं चला गया| 
उसकी स्त्री रो रो कर अपनी सखी से कहने लगी- सखी! मुझे तो बड़ी चिंता हो गयी| मैं यह फल नहीं खाऊंगी| फल खाने से गर्भ होगा| गर्भ से पेट बढ़ेगा| फिर कुछ खाया पिया नहीं जाएगा और फिर मेरी शक्ति क्षीण हो जाएगी| तब बता! घर का धंधा केसे होगा| और यदि गाँव में डांकूओं का आक्रमण हो गया तो गर्भिनि स्त्री कैसे भागेगी? यदि शुक देव जी की तरह यह गर्भ भी पेट में ही रह गया तो इसे बाहर कैसे निकाला जाएगा? और फिर यदि प्रसव काल के समय यदि गर्भ टेढ़ा हो गया तो प्राणों से ही न हाथ धोना पड़े| यों भी प्रसव के समय बड़ी भयंकर पीड़ा होती है| और जब मैं दुर्बल पड़ जाउंगी तो ननद रानी आकर घर का सारा माल समेट कर ले जाएगी| 
मन में एसे ही तरह तरह के कुतर्क उठने के कारण ब्राम्हनि ने वह फल नहीं खाया| जब उसके पति ने पूछा की "फल खा लिया? " तब उसने कह दिया-"हाँ, खा लिया| "
एक दिन ब्राम्हनि की बहिन उसके घर आई तो उसने सारा वृतांत उसे सुना कर कहा- बहिन! मेरे मन में बड़ी चिंता है, बता मैं क्या करूँ?
बहिन ने कहा- मेरे पेट में बच्चा है| प्रसव होने पर बालक को मैं तुझे दे दूँगी, तू तब तक गर्भवती होने का नाटक करती रह| तू मेरे पति को कुछ धन दे देगी तो वह तुझे अपना बालक दे देंगे| हम एसी युक्ति करेंगे कि सब लोग यही सोचेंगे की मेरा बालक 6 महीने का होकर मर गया| और मैं नित्य प्रति तेरे घर आकर तेरे बालक का भरण पोषण करती रहूंगी| तू इस समय इस फल की जाँच करने के लिए इसे गाय को खिला दे| 
ब्राम्हनि ने वही किया जो उसकी बहिन ने कहा था| कुछ समय पश्चात जब उसकी बहिन को पुत्र हुआ तो उसने वह धूंधुलि को दे दिया| इस प्रकार आत्मदेव को पुत्र हुआ सुनकर लोगों को बड़ा आनंद हुआ| धूंधुलि ने उसका नाम धूंधुकारी रखा| इसके 3 महीने बीतने पर गाय को भी एक मनुष्यकार पुत्र हुआ| वह सुंदर, दिव्य, स्वर्ण की कांता वाला था| ब्राम्हन ने स्वयं ही उसके सभी संस्कार किए| उसके गाय के जैसे कान देख कर उसने उसका नाम गौकर्ण रखा| 
कुछ काल बीतने पर दोनो बालक जवान हो गये| उनमें गौकर्ण पंडित एवम् ज्ञानी हुआ| किंतु धूंधुकारी बड़ा ही दुष्ट निकला| क्रोध उसमें बढ़ चढ़ के भरा था| हिंसा का उसे व्यसन हो गया था| वैश्याओं के जाल में पड़ कर उसने पिता की सारी संपत्ति नष्ट कर दी थी| एक दिन माता पिता को पीट कर वह घर से सारा धन लेकर चला गया| 
यह देखकर आत्मदेव बड़ा ही दुखी होकर बोला-एसे कुपुत्र से तो बांझ होना उचित है| उसी समय गौकर्ण जी वहाँ आए और पिता को वैराग्य का उपदेश देते हुए कहा- पिताजी! यह संसार दुख और मोह में डालने वाला है| "यह मेरा पुत्र है", इस अज्ञान को छोड़ दीजिए और वन में चले जाइए| 
गौकर्ण के वचन सुनकर आत्मादेव वन में जाने को तैयार हो गया| उसने पूछा- बेटा! वन में जाकर मैं क्या करूँ? मेरा उद्धार करो|

गौकर्ण ने कहा- पिताजी! आप इस शरीर को "मैं" मानना छोड़ दे.| संसार की किसी भी वस्तु को स्थाई न समझें| यह नश्वर है| एकमात्र भगवतसेवा और भगवान की कथाओं का रसपान करें| 
इस प्रकार पुत्र की वाणी से प्रभावित होकर आत्मदेव ने घर छोड़ दिया और वन में दिन रात भगवान की सेवा पूजा से तथा भागवत के दशम स्कंध का पाठ करने से उसने भगवान श्री कृष्णचंद्र को प्राप्त कर लिया|


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